काशी को काशी रहने दो

 काशी को काशी रहने दो

एक वक्त था जब भारत की सांस्कृतिक विरासत के सामने दुनिया की शायद ही कोई सांस्कृतिक विरासत ठहर सकती थी। मगर इस देश को बाहरी आक्रमणकारियों की नजर ऐसी लगी कि धीरे-धीरे इसकी धार्मिक, सांस्कृतिक समृद्धि उनकी लूट-खसोट, उनके द्वारा फैलाये गये धार्मिक उन्माद और नफरत आदि की भेंट चढ़ती चली गई। नतीजा ये हुआ कि इस देश ने अपनी सांस्कृतिक विरासत की बहुत सी ऐसी मूल्यवान चीजों को खो दिया, जिनकी वजह से उसका सिर दुनिया के सामने हमेशा ऊंचा रहता था।

प्राचीन समय में सास्कृतिक विरासत को जरूर बाहरी आक्रमणकारियों ने विध्वंस किया लेकिन वर्तमान समय में जिस तरह से काशी की प्राचीन धार्मिक विरासत का विध्वंस हो रहा है उसमें कोई बाहरी आक्रमणकारी नही बल्कि हमारे अपने बीच के कर्णधार ही है जिन्हे सिर्फ दंड-प्रणाम में ही भरोसा है।

जब से काशी को क्योटो बनाया जा रहा है……..

मैं बनारसी हूं। मेरे बारे में अक्‍सर कहा जाता है कि मैं एक मौजमस्ती वाले शहर से हूं लेकिन माफ कीजिएगा आज के दौर में यह सबसे बड़ा झूठ है। बेशक मैं भले ही मौज मस्ती वाले शहर हूं, लेकिन सत्यता यह है कि सदियों से मेरे अंदर ह्रदय में बसे बनारसी पन को तिल तिल कर मारा जा रहा है। मेरे बनारसी पन को घुट घुट कर मरने को मजबूर किया जा रहा है। काशी की धार्मिक विरासत के खजानों का प्रति रूप अति प्राचीन देवालयों की दरकती एक एक ईंट की तरह मेरा बनारसी पन भी दरकता जा रहा है। जो बनारसी मित्र कभी मेरे साथ मौजमस्ती करने के लिए यहाँ की गलियों घाटों में शामिल हुआ करते थे, उन्होंने ही अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए काशी की धरोहरों को उजाड़ने में कोई कसर नही छोड़ी। विनाश की लीला विकास के आईने में रच रहे हैं। दुख तो इस बात का है कि मेरे साथ उठने बैठने वाले मित्र ही जो विजया सेवन के बाबा विश्वनाथ की कसमें खाते रहते हैं वही मित्र मंदिर के कट्टपा मेरे बनारसी पन के सबसे बड़े शत्रु बन चुके हैं। अपने आप को स्थापित करने के लिए मेरे जिन अपनों ने हिन्दुत्व का झंडा उठाया था वे ही बनारसी पन को विस्थापित करने का कुचक्र के दोषी रहे हैं। बाबा विश्वनाथ के नाम पर एकाध वार्षिक आयोजन करने वाले सदियों से परंपरा का निर्वाह करने वालों को कटघरे में खड़ा करके खुद न्यायाधीश बन गये हैं। ऐसे ही लोगों ने बाबा की कई प्राचीन परंपराओ में अवरोध खड़े कर दिए थे लेकिन बाबा विश्वनाथ की कृपा से वो अपने मंसूबों मे सफल नही हो सके। जो खुद को बनारसी व बाबा का भक्त कहते थे, ऐसे तथाकथित हिंदू नेताओं की महत्वाकांक्षी स्वार्थ ने काशी की आत्‍मा को सरेआम कत्‍ल कर दिया। जो कभी मेरे मित्र मंडली का अंग हुआ करते थे, भक्‍त से ‘दलाल’ में तब्‍दील हो चुके हैं। लेकिन मैं कुछ नहीं कर पा रहा हूं। मैं हर दिन खुद को मरते हुए देख रहा हूं। मुझे पता है कि यह सब आपको बताने का कोई मतलब नहीं है। मेरी आत्‍मा पक्‍के महाल में बसती है। पक्‍का महाल की जब बात करता हूं मैं तो मेरे लिए पक्‍का महाल भोले भंडारी महादेव के विश्‍वनाथ मंदिर के आसपास का इलाका है। ये सिर्फ एक इलाका नहीं है, बल्कि आप लोग जिस बनारस के बारे में जानते हैं, वो वहीं बसता है। बल्कि यह कहना उचित होगा कि वहीं बसता था। कई मोहल्‍ले इसमें शामिल हैं।

विश्वनाथ गली, कोतवालपुरा, ढुंढीराज गणेश, साक्षी विनायक, त्रिपुरा भैरवी, सरस्वती फाटक, नेपाली खपड़ा, खोवागली, लाहौरी टोला, मीरघाट, राजराजेश्वरी गली, कॉलिका गली,  ललिता घाट, संकठा गली, नीलकंठ गली उस पक्के महाल का अभिन्न अंग हुआ करते थे। उस पक्के महाल का सदियों लंबे अर्से में काशी की विश्वेश्वर पहाड़ी पर एक सतत प्रक्रिया के तहत बसाए गये थे। यहां का रहन सहन बड़े महानगरों की सतत् जीवन शैली से एक अलग सुकून भरा था। सुबह भोर मे बाबा के मंदिर प्रांगण से प्रसारित होने वाले  “सुप्रभातम” के मंत्रों से दिन की शुरुआत अब बीते दिनों की बात हो गयी। सुबह आठ बजे के बाद घिस्सन साव व पतालू की गरमा-गरम कचौड़ी-जलेबी की महक से गलियों में खड़े होकर नाश्ते का आनन्द बंया करना सरल कार्य नही। धर्म,अर्थ और मोक्ष के कामनाओं की पूर्ति सरलता से होती थी। गंगा के किनारे की इन्ही गलियों में जिंदा रहने वाले पक्के महाल के मूल हिस्सों में विकास के नाम पर विनाश लीला रच कर धार्मिक मॉल का हिस्सा बना दिया गया। खुद को ‘गंगापुत्र’ कहने वालो ने ही गंगापुत्रों को उजाड़ दिया है। नहीं चाहिए ऐसा विकास, जो काशी की आत्‍मा का कत्‍ल कर दे। बनारस सिर्फ एक शहर नहीं बल्कि परंपरा है, यहॉ न जाने कितने मंदिर, मठ और सैकड़ों साल पुराने घरों का संगम हैं जो यहाँ की पहचान है लेकिन सबकुछ खत्‍म हो जाएगा। जब काशी क्योटो बन जायेगा।

श्री काशी विश्वनाथ मंदिर की धार्मिक व्यवस्था के लिये 1983 मे काशी के लोगो ने अपने घरों की बारादरी से हफ्तों मशाल जलाकर करतल ध्वनि के साथ मंदिर का सरकारी करण कराया था। सन् 1983 से विश्वनाथ मंदिर के सरकारी करण और आसपास के क्षेत्रों में 1991 से लागु विशेष सुरक्षा व्यवस्था के बाद से 2018 में लागु ध्वस्तिकरण,  विस्तारीकरण व विकास की कई योजना बनी लेकिन कभी भी काशी के धार्मिक विरासतों पर तोडफोड नही हुई लेकिन इस नई योजना में सबसे ज़्यादा प्रभावित यहाँ के प्राचीन  देवालयों व उनसे जुड़ी परंपराओ के साथ-साथ मंदिर के आसपास अर्से से रहने वाले परंपरा वाहक और व्यापारी वर्ग रहा है।

पिछले तीन दशकों से ज्यादा समय से विश्वनाथ मंदिर और आसपास के क्षेत्रों को कई बार प्रभावित करने वाली विकास योजनाएँ आयी मगर यहॉ के संगठित स्वरूप के कारण कई योजनाएँ स्वरूपों में बदलाव के बाद बिना किसी विनाश के लागू भी हुई। 

विश्वनाथ मंदिर कॉरिडोर विकास योजना पर कार्य शुरू होने के बाद समर्थन और विरोध में कई संगठन आमने सामने आये। आरोप प्रत्यारोप के कारण संगठित स्वरूप भी नष्ट हो गया। विकास योजना में शामिल कर्णधार संगठित स्वरूप को नष्ट करने के लिये अंग्रेज़ी शासको की तरह कार्य करते हुये फिल्मी अंदाज़ में फ़ुट डालों कार्य करो की निति पर चले जिसका उन्हे लाभ भी मिला बड़े पर्दे का सजीव प्रसारण यहाँ सामान्य बात थी पहले धमकी के साथ डंडा बल काम नही बना तो अन्य सरकारी संस्थानों के कर्मचारी अगली मोर्चे पर। संगठित आन्दोलन में कुछ ज़िम्मेदार विभिषणों के स्वहित के कारण आन्दोलन कमजोर पड़ गया जिसके कारण आज विश्वनाथ मंदिर का मूल प्राचिन स्वरूप नष्ट हो गया। विकास का गाना गाने वाले मौका परस्ती लोग आज भी शान्त नही है घड़ियाली आँसु बहा रहे बस उन्हे पुन: मौका मिलने दिजिये।

काशी के सत्ताधारी और विपक्षी टाइप समर्थकों के साथ ही उन लोगों ने भी गांधी जी के तीन बंदरों को अपना आदर्श मान कर चुप रहना उचित समझा जो लंबे समय से हिंदुत्व की लड़ाई लड़ने को संकल्पित हिंदुत्व वादी हैं,  उनकी मजबूरी ये है कि पीढ़ीयों की मेहनत के बाद तो देश में राष्ट्रवादी निर्णय लेने वाली सरकार बनी है उसे कमजोर नहीं होने देना चाहते वर्ना छद्म सेकुलरिज्म के दुकानदार इसका फायदा उठा सकते हैं। काशी की विकास योजना की तथाकथित समितियों व काशी विनाश परिषद् को पूर्ण अहसास है कि काशी विश्वनाथ मंदिर के प्राचीन स्वरूप का ध्वस्तिकरण के बाद बुरा दृश्य है  मंदिर के पंचांग स्वरूप को समझने वाले कम है। धर्मावलम्बियों के विरोधी रूदन व बुरे आक्रोश का कोई तार्किक जवाब नहीं होने के कारण अभी उन्होंने बुरा बोलना उचित नहीं समझा और जुबान बंद कर ली और इसके लिए उन्होंने गांधी जी के तीन बंदरों से प्रेरणा ले कर स्वयं को अपने मूल चरित्र से बाहर निकाल लिया।

अफ़सरशाही और तथाकथित विकास वादियों की अल्पभाषी सोच ने बर्बाद की कॉरिडोर की पौराणिक सभ्यताओं को…………….

विश्वनाथ मंदिर क्षेत्र में विस्तारीकरण और कॉरिडोर विकास योजना के नाम पर किये जा रहे कार्यों में धार्मिक और पौराणिक मान्यताओं की अनदेखी का सबसे बड़ा कारण अफ़सरशाही और तथाकथित समर्थकों की कार्य प्रणाली है जिसे कारण प्राचीन परंपराओं और सभ्यताओं का एक अंग समाप्त हो गया। कॉरिडोर योजना के धृतराष्ट्र बने कर्णधारों ने योजना की घोषणा के बाद शुरूआत से ही विरोध को अनदेखा कर एक बार भी इसकी धार्मिक विसंगतियों को दुर करने का प्रारंभिक प्रयास नहीं किया। अगर प्रयास किया जाता तो आज कर्णधारों को योजना के समर्थन के लिये अप्रत्यक्ष रूप किसी एेसी संस्था का सहारा नहीं लेना पड़ता जिसके संचालकों का इतिहास भूगोल ही लाभ के लिये बने रहना है। योजना के समर्थक एेसे है जिनका अपना कोई अस्तित्व नहीं वो सिर्फ़ प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी का नाम लेकर भावनात्मक अत्याचार कर रहे है। श्री मोदी जी ने काशी का सांसद होने के नाते इस प्रचिनतम शहर की योजनाओं को प्राथमिकता दी है।

यह विचारणीय है जिस श्री काशी विश्वनाथ मंदिर की व्यवस्था का संचालन पिछले 37 वर्षों से ट्रस्ट बनाकर सरकारी तंत्र संचालित करता रहा है। कॉरिडोर योजना को मूर्त रूप देने से लिये मंदिर ट्रस्ट को महत्वहीन करने के लिये शुरू से ही षणयंत्र का सहारा लिया गया क्योंकि इन वर्षों में कई योजनाएँ आयी और विसंगतियों को दुर कर योजनाएँ पुरी हुई। इसके लिये कभी सरकारी तंत्र को भाड़े के समर्थकों की आवश्यकता नहीं पड़ी। श्री मोदी जी ने जैसे ही एक सांसद के तौर पर विश्वनाथ मंदिर के आसपास सुन्दरीकरण के लिये इच्छा जताई तुरंत कुछ सत्ता लोलुप और अफ़सरशाही को बड़ा खेल नज़र आया और उन्होंने मन माफ़िक़ योजना बनाकर अपने अनुसार  शतरंजी प्यादे बैठा दिये। इसके लिये बकायदा प्राधिकरण का तो गठन कर दिया गया लेकिन जिस ट्रस्ट के अधीन विश्वनाथ मंदिर की व्यवस्था संचालित होती थी उसके सदस्यों का कार्यकाल समाप्त हुये 36 माह होने के बाद भी पुर्नगठन नही किया गया। एेसा लगता है कुछ स्वार्थी तत्वों ने लाभ लेने के उद्देश्य से प्रधानमंत्री जी और मुख्यमंत्री जी तक योजना कि विसंगतियों को या तो सही समय पर पहुँचने नहीं दिया। या कॉरिडोर की विसंगतियों पर ज्यादा आवाज उठी तो विकास विरोधी बताकर मामले को राजनितिक रंग दे दिया गया। अगर योजना से संबंधित सही आकलन और पौराणिक विसंगतियों को उन तक पहुँच जाता तो जिस तरह अयोध्या का रामजन्म मंदिर अपने मूल स्थान पर बन रहा है उसी तरह विश्वनाथ मंदिर का मूल पंचआयतन स्वरूप नष्ट नही होता और ना ही काशी खडोक्त सकैडो देवालयों को अपने मूल स्थान से हटाना पडता।

कॉरिडोर योजना को विकास का नाम देकर भावनात्मक अत्याचार का प्रचार करने वाले बताये क्यों पिछले सात वर्षों में नगर विकास के लिये कई योजनाएँ बनी लेकिन किसी भी योजना का न तो विरोध हुआ और ना ही समर्थन के लिए नगर के धनाढ़्य संगठनों को भ्रमण कराने की आवश्यकता पड़ी ? योजना बनाने वाले कर्णधारों ने योजना की विसंगतियों को दुर करने की जगह और उलझा दिया है। आने वाला वक्त बताएगा कॉरिडोर बनाने के नाम पर भवनो को क्रय करने सहित किस कार्य में किस मद से कितना खर्च किया गया है कौन सा कार्य दानदाताओ के पैसे से हो रहा कौन सा सरकारी कोष और कौन सा मंदिर के कोष से हो रहा इसकी गोपनीय जॉच की आवश्यकता है। आखिर कब तक इस योजना की विसंगतियों को छिपाने का प्रयास किया जाएगा?

क्या आधुनिक भारत का वास्तु शास्त्र इतना समृद्ध नहीं हो पाया है कि वो अपनी धरोहरों को संजोते हुए नए निर्माण कर सके ??? जैसे नेता सत्ता के लिए परेशान रहते है वैसे ही यहां कॉरिडोर में सिर्फ अपना नाम जुड़वाने के लिये आधुनिक आर्किटेक्ट (वास्तु शास्त्री) विश्व स्तरीय निर्माण के लिए परेशान है। डूब मरना चाहिए ऐसे कॉरिडोर डिजाइन कर रहे इंजीनियरों को जिन्हें इतना भी एहसास नहीं कि उन्होंने जिस काशी विश्वनाथ के चौहद्दी को विकास के नाम पर विध्वंस किया है वो अपने आप में इतिहास था। वो भी उस धरती पर जहां हम घर तब तक नहीं तोड़ते जब तक वो उस काबिल ना हो जाए। सक्षम होने पर हम उसे संजो के भी रखते हैं। फिर ये तो स्वयं काशी के मालिक काशी विश्वनाथ का मंदिर था। मेरा पूरा विश्वास है कि वो इंजीनियर भी किसी विकासवादी पिता की औलाद होगा.. जो इंजीनियर बनने के लिए ही पैदा हुआ होगा और बचपन से सिर्फ बड़ा इंजिनियर बनने के लिए ही सबकुछ किया होगा पर इस बीच उसके माता पिता ने उसे भारतीय धार्मिक संस्कृति के बारे में कत्तई दीक्षित नहीं किया सिर्फ उसके रिपोर्ट कार्ड देखे होंगे जिसका नतीजा ये हुआ कि उसने उस निर्माण में खुद को स्थापित करने की सोंच ली और उसके जैसे किसी अत्यंत विद्वान द्वारा शास्त्रीय विधि से बनाए गए स्वरूप को तोड़ कर अपनी कल्पना के स्वरूप वाला नक्शा बना दिया।

राजनीति जो भी करती है उसे मालूम होता है कि उससे ही वोट बनते बिगड़ते हैं। और वो सिर्फ उन बातों पर अपना कान देती है जिससे उसके वोट बनते या बिगड़ते हैं. वर्ना सुन के भी अनसूना कर देते है.जैसा की इसवक्त हो रहा है। पर सच यही है जो हो रहा है. वो भारत के सांस्कृतिक धार्मिक धरोहरों के प्रति वास्तविक आधुनिक सोंच को दर्शा रहा है।

इस विषय को राजनैतिक रूप से जिसको जो व्यक्त करना है वो करेगा ही। पर समस्या बस इससे हल नहीं होने वाली हमें अपनी आगे की पीढ़ी को भी दीक्षित करना पड़ेगा वर्ना वो भी जिस क्षेत्र में बड़ा काम करने का अवसर पाएंगे वहां विध्वंस ही करेंगे। वैसे मेरे हृदय से तो उस भारत की भूमि में जन्म लेने वाले इंजिनियर के लिए भी श्राप निकल रहा है जिसे काशी विश्वनाथ कॉरिडोर जैसा ऐतिहासिक निर्माण करने का सौभाग्य मिला फिर भी उसने भक्तों के हृदय में बसने का मौका गंवा दिया।  मुझे नहीं लगता कि काशी के ही क्या पूरे भारत के काशी विश्वनाथ के नियमित भक्त उस इंजिनियर को उसके जीवन के लिए शुभेच्छा दे पाएगा। और नेताओं के बारे में भी एक बात भी पूरी तरह सिद्ध हो गई जो राजनीति से सम्बन्ध ना रखने वाले सामान्य लोगों के बीच व्यक्तिगत वार्ता के दौरान या परिवारों की व्यक्तिगत वार्ता के दौरान होती है कि नेता परेता लोगों पर भरोसा करना मूर्खता होती है। वो अपने फायदे के लिए तो तुम्हारा फायदा करा सकता है पर यदि तुम्हारा बड़ा नुकसान होने से उसका थोड़ा भी नुकसान बच सकता है तो वो तुम्हारा नुकसान करने से कभी नहीं हिचकेगा। और ये सत्य है.. इसका साक्षात उदाहरण काशी विश्वनाथ मंदिर है..बाबा आपन रक्षा स्वयं करें त करें वर्ना फिलहाल तो ऐसी कोई आशा की किरण नही दिखाई दे रही जिससे ये हाहाकारी विध्वंसक निर्माण के निर्माताओं का भविष्य का मन मंतव्य पता चल सके।

Sanjeev Ratna Mishra

संजीव रत्न मिश्र विश्वनाथ मंदिर क्षेत्र के निवासी समाजिक कार्यकर्ता व पत्रकार है। ज्ञॉनवापी परिसर व मस्जिद को लेकर चल रहे मुकदमों के लिए स्व०पं. केदारनाथ व्यास (प्रबंधक व्यासपीठ व ज्ञॉनवापी हाता) ने अपना मुख्तारे आम नियुक्त किया था। रिश्ते में व्यास जी के दौहित्र है।

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  • ज्यादातर बनारसी पाश्चात्य संस्कृति के शिकार हो गए हैं। इसीलिए इनको काशीखण्डोक्त मन्दिरों का तोड़ना एक विकास की तरह लग रहा है। सांस्कृतिक धरोहरों का विनाश करके आकर्षक माल बनाने में उनको कोई आपत्ति नहीं है। वे न तो इसके प्रति सजग हैं और न ही उनकी कोई विशेष आस्था
    ही है। आपका कार्य सराहनीय है। हम सब आपके साथ मरते दम तक हैं।

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